जाने कैसे एक पुलिस इंस्पेक्टर बना बॉलीवुड का सुपरस्टार , जिनके “पाकीज़ा” से लेकर “सौदागर” के डायलॉग ने उन्हें बना दिया अमर
1965 में आई फिल्म ‘वक़्त’ में राज कुमार ने एक डायलॉग बोला ”चिनॉय सेठ, जिनके अपने घर शीशे के हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते.’ ये उसी वक़्त अमर हो गया आज भी कितने ही उदहारणों के लिए लोग इसका प्रयोग करते हैं। ये डायलॉग इसलिए फेमस नहीं हुआ था क्योंकि इसमें कोई बहुत गहरी बात कह गई थी. इसकी खासियत थी इसका बोलने का अंदाज़, जिसके लिए बॉलीवुड में राज कुमार बदनाम हो गए थे यूं तो कितने ही बड़े-बड़े एक्टर बॉलीवुड में आए और गए है , मगर राज कुमार की एक अनोखी ही पहचान थी।
राजकुमार का शुरुआती जीवन के बारे में अधिक ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. वो खुद कभी अपने बचपन के समय बोलते नज़र नहीं आए थे. जो थोड़ी बहुत जानकारी उनके बारे में प्राप्त है, ये है कि उनका असली नाम राज कुमार नहीं बल्कि कुलभूषण पंडित था. 8 अक्टूबर 1926 को उन्होंने ब्रिटिश इंडिया के अधीन रहे बलूचिस्तान में जन्म लिया था. 1947 में देश का बंटवारा हुआ था, तो उनका परिवार हिंदुस्तान वापस लौट आया और यहां आने के बाद वह मुंबई में रहने लग गए .
राज कुमार मुंबई में तो थे, मगर शुरुआती समय में उनके दिमाग में एक्टर बनने का ख़याल तक नहीं था. अपने जीवन के शुरुआती वकत में उन्होंने मुंबई पुलिस में नौकरी की थी. जी हां! राज कुमार ने मुंबई पुलिस में एक सब-इंस्पेक्टर के पद पर कार्यायरत थे . राज कुमार अपनी पुलिस की नौकरी से खुश थे.
मगर किस्मत में उनके लिए अलग ही राह लिखी हुई थी. पुलिस में लगने के कुछ समय बाद ही उन पर एक मर्डर में शामिल होने का आरोप लगा था , जिसके बाद उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. कुछ लोग कहते हैं यही से शुरू हुआ उनका वो सफर जिसने उन्हें पूरे बॉलीवुड में मशहूर कर दिया ।
अब ये वो दौर था जब अच्छी नौकरियां बहुत कम ही मिला करती थी. मुंबई जैसे शहर में परिवार का ख्याल रखने के लिए रुपयों की जरूरत पड़ती थी. देश की आज़ादी की बाद हिंदी सिनेमा लगातार फैलता जा रहा था. देश भर से युवा यहां एक्टर बनने की चाह लेकर आ जाये करते थे.
इसी दौर में राज कुमार ने भी सोचा कि क्यों न एक्टिंग में अपने आप को आजमाया कर देखे . सभी नए लोगों की तरह उन्होंने भी जगह-जगह जा कर ऑडिशन देने पराम्ब किए. हालांकि, उन्हें कोई सफलता हाथ नहीं लगी थी . लकिन एक लम्बे वक़्त तक राज कुमार ऐसे ही ऑडिशन देते रहे.
इसी बीच उन्होंने 1950 में अपना नाम कुलभूषण से बदलकर राज कुमार रख लिया था काफी कोशिशों के बाद उन्होंने फिल्म ‘रंगीली’ में एक रोल मिला यह . उन्होंने फिल्म का ऑफर मिलते ही हां भर दी और शूटिंग में पुरे जोश के साथ लग गए. हालांकि, उनका स्ट्रगल अभी ख़त्म नहीं हुआ था.
उन्होंने फिल्म की शूटिंग तो ख़त्म कर दी थी , लेकिन वो फिल्म सही वक़्त पर रिलीज नहीं हो पाई थी इसी बीच उन्हें ‘नीली’ नाम की एक और फिल्म मिली , जो साल 1950 में रिजील हुई और उसके जरिए राज कुमार ने अपने स्क्रीन डेब्यू किया था ।
मदर इंडिया से मिली असली शौहरत
राजकुमार ने दो फ़िल्में तो कर ली , मगर उन्हें लोगों ने अब तक जाना पहचना नहीं था. 1957 में आई फिल्म ‘नौशेरवां-ए-एदिल’ राज कुमार की पहली फिल्म थी, जिसे देखकर लोग उन्हें पहचने लगे थे. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन्होंने इस फिल्म में एक असल राज कुमार का रोल निभाया था.
फिल्म में उन्होंने ऐसे दिलचस्प अंदाज में डायलॉग बोले कि बॉलीवुड में उनके नाम का हो-हल्ला हो गया था . ये राज कुमार का अलग ढलक अंदाज ही था, जो इस फिल्म के बाद उन्हें उसी साल मदर इंडिया में रोल मिला था . मदर इंडिया उस दौर की सबसे सफल फिल्म थी.
भले ही राज कुमार को इसमें लीड रोल नहीं मिला था, मगर उन्होंने अपने छोटे से रोल को कुछ यूं अदा किया कि वो हर एक के दिल में बस गए. कहते हैं कि उन्होंने फिल्म में एक गरीब किसान का रोल किया जो किसी रईस इंसान की तरह निभना था . यही कारण है कि रातों-रात उनके सितारे बुलंद हो ऊठे थे .
राजकुमार के डायलॉग यादगार बन गए
मदर इंडिया फिल्म के बाद राजकुमार को कई बड़ी फ़िल्में मिली थी ,जैसे पैगाम, वक़्त और नील कलम. राज कुमार फेमस तो हो रहे थे लकिन साथ में उन्हें वो लीड रोल नहीं मिल रहा था जिसकी उन्हें दरकार थी. आखिरकार में 1972 में जा कर उनकी ये ख्वाइश पूरी हुई जब उन्हें फिल्म पाकीज़ा में काम करने का अवसर मिला.
अब इस फिल्म में जिस तरह से राजकुमार ने प्यार की परिभाषा को बदलकर दिखाया था उसे देख हर कोई उनका दीवान हो चूका था . वहीं, उनका डॉयलाग ‘आपके पांव देखें, बहुत हसीन हैं. इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएंगे’. आज भी लोगों को मुंह जुबानी याद है.
इसके बाद तो उनका हर एक डायलॉग फेमस होता गया. जैसे:
जब राजेश्वर दोस्ती निभाता है तो अफसाने लिक्खे जाते हैं..
और जब दुश्मनी करता है तो तारीख़ बन जाती है
– राजेश्वर सिंह, सौदागर (1991)
जब ख़ून टपकता है तो जम जाता है, अपना निशान छोड़ जाता है, और
चीख़-चीख़कर पुकारता है कि मेरा इंतक़ाम लो, मेरा इंतक़ाम लो.
– जेलर राणा प्रताप सिंह, इंसानियत का देवता (1993)
बिल्ली के दांत गिरे नहीं और चला शेर के मुंह में हाथ डालने. ये बद्तमीज हरकतें
अपने बाप के सामने घर के आंगन में करना, सड़कों पर नहीं.
– प्रोफेसर सतीश ख़ुराना, बुलंदी (1980)
हम अपने कदमों की आहट से हवा का रुख़ बदल देते हैं पृथ्वीराज, बेताज बादशाह (1994)
जानी.. हम तुम्हे मारेंगे, और ज़रूर मारेंगे.. लेकिन वो बंदूक भी हमारी होगी,
गोली भी हमारी होगी और वक़्त भी हमारा होगा.
– राजेश्वर सिंह, सौदागर (1991)
हम आंखों से सुरमा नहीं चुराते, हम आंखें ही चुरा लेते हैं.
– ब्रिगेडियर सूर्यदेव सिंह, तिरंगा (1992)
ये सभी डायलॉग ने राजकुमार को एक अलग ही पहचान दे दी थी. अपने डायलॉग को लेकर बॉलीवुड में बदनाम हो चुके थे. फिर भी उन्हें कितना भी मामूली डायलॉग मिलता, वो अपने अलग अंदाज़ से उसका मुख मोड़ ही देते थे. यही वजह थी कि वो अपने नाम की तरह आखिरी दम तक एक राजकुमार जैसे ही रहे थे
अपने सफ़र में 3 जुलाई, 1996 को कैंसर से अपनी लड़ाई लड़ने के बाद राजकुमार ने इस दुनिया को अलविदा कहे दिया था . उनके जाने के बाद उनके जैसे अंदाज़ वाला कोई दूसरा एक्टर नहीं देखा गया . शायद यही वजह थी कि आज भी उन्हें क्लासिक इंडियन सिनेमा का एक बड़ा हीरो माना गया है.
राज कुमार जैसे बेहतरीन एक्टर कई सालों में एक बार ही आते हैं. अपनी अपने पुरे जीवनकाल में उन्होंने फिल्म करने में गुज़ार दी. आज भी उनकी एक्टिंग देखकर दिल खुश हो जाता है.
दोस्तों आपको राजकुमार की कोनसी सी फिल्म या कौन सा डायलॉग सबसे ज्यादा पसंद है कर्प्या कमेंट सेक्शन में जरूर बताएं.